आज का दिन बहुत ही आराम वाला था क्योंकि सिर्फ 90 कि मी रास्ता तय करना था आज। सुबह आराम से 8 बजे उठे, चटक धूप निकली हुई थी। चाय पी के, आराम से लॉन में चहलकदमी करते हुए हम धूप का आनंद ले रहे थे और चहलकदमी करते हुए रणदीप और डॉ साहब दुनिया जहान के विषयों पर बातचीत कर रहे थे। थोड़ी देर में आराम से नहा धो के 10 बजे तक हम निकल पड़े। नाश्ता होटल में न करके किसी ढाबे में करने का तय हुआ।
थोड़ा आगे चलने पर ढाबा मिला, नाश्ता कर के हम लोग भी आगे बढ़ लिए। थोड़ा आगे बढ़ते ही ऐसा लग जैसे प्रकृति ने अपना पिटारा खोल दिया हो, बारिश का मौसम निकल चुका था और पीछे छोड़ गया था हर तरफ हरियाली और मनभावन दृश्य। सीढ़ीदार खेत और उन पर लगी फसलें, बड़ा ही मनोहारी दृश्य था। मेरा ध्यान सड़क से ज़्यादा आस पास की सुंदरता पर था। जब मुझसे रहा नहीं गया तो एक जगह मोटरसाइकिल रोक ही ली। डॉक्टर साहब एयर रणदीप सड़क किनारे घास में बैठ कर बातें करने लगे और मैं अपना कैमरा ले कर निकल पड़ा शिकार पर।
ऐसे ही कई जगह रुकते रुकाते भी हम 2 बजे चौकोड़ी के पर्यटक आवास गृह पहुच गए। अब शुरू हुआ विचार विमर्श कि कमरा लिया जाए या कॉटेज? कमरा मुख्य इमारत में था और कॉटेज थोड़ा हट के। फिर फैसला हुआ कि कॉटेज ली जाए, हम तीनों उसी में रुक लेंगे।
चौकोड़ी का पर्यटक आवास गृह बहुत अच्छी तरीके से बना हुआ है और बहुत अच्छी लोकेशन पर भी है। मुख्य बिल्डिंग से पहले काफी जगह है पार्किंग की। फिर मुख्य बिल्डिंग, उसके आगे घास का छोटा सा पार्क जिसके किनारे फूलों वाले पौधे लगे हुए हैं। और फिर आखिरी में कॉटेज और कॉटेज के पीछे क्षितिज में बर्फ के पहाड़।
कुल मिला कर बहुत सुंदर दृश्य है। कॉटेज कोई महँगी नहीं थी। सिर्फ 1900 रुपये, 3 लोगों के लिए। इसमें सुबह का नाश्ता भी शामिल था।
अगर चौकोड़ी जाएं तो यहीं रुकें, बाकी जगह से इतना अच्छा व्यू नहीं आता।
कॉटेज ली गयी और समान पटका गया। अभी दोपहर के 2:30 ही हुए थे और आराम करने का कोई मन नहीं था। तो सोचा थोड़ा घूम आया जाए और खाना भी बता दिया जाए रात के लिए। रणदीप का मन नॉनवेज खाने का था तो डिसाइड हुआ की चिकन बनवाया जाय। जब रसोइये से पूछा तो उसने मना कर दिया की श्राद्ध चल रहे हैं और वो नॉनवेज नहीं रखते क्योकि कोई खाता ही नहीं। अगर हम ले आएं तो चिकन बन जायेगा।
तो फिर चिकन की खोज शुरू हुई। एक कसाई की दुकान मिली और चिकन ले लिया। वापिस आ के रसोइये को चिकन दिया और हम चले गए फिर से बूढ़े साधु की शरण मे। आधा चिकन सूखा बनवा लिया जिस से बूढ़े साधु को भोग लगाया बाकी रात के लिए रख दिया।
शाम ढली, अंधेरा हुआ तो हमारे अंदर का भी राक्षस जाग गया। चल पड़े पैदल चौकोड़ी घूमने। घर के अंदर चलती हुई बेकरी देखी तो खाने के लिए बिस्कुट ले लिए। वाह, क्या स्वाद था बिस्कुट का।
खैर, घूम घाम के वापिस आये तो ज़ोरों की भूख लगी थी, खाना खाया और लंबे हो कर लेट गए।
अगले दिन मुनस्यारी के लिए निकलना था।
मुनस्यारी की कहानी अगले भाग में।