काफी देर तक हम लोग चांशल पर मस्ती करते रहे, फ़ोटो खींचे, आराम किया, दोपहर का खाना खाया (फिर से सिर्फ सेब)। घड़ी देखी तो 2 बज चुके थे। बादल भी घिर आये थे। मौसम खराब होने की आशंका से हम लोग वापिस चल पड़े।
पहाड़ी रास्ते पर उपर चढ़ना जितना मुश्किल है, उस से ज़्यादा नीचे उतरना मुश्किल होता है। तीखी ढलान पर बाइक अपने आप ही स्पीड पकड़ रही थी और हम ब्रेक भी नही मार सकते थे क्योकि कीचड़ की वजह से फिसलन थी।
ऐसे समय मे सिर्फ एक technique काम आती है, जिसे engine breaking कहा जाता है। इसमें बाइक की स्पीड को गियर के सहारे कंट्रोल में रखा जाता है। जैसे कि अगर आप अपनी बाइक को 20 की स्पीड से ऊपर नहीं जाने देना चाहते तो ढलान के रास्ते पर पहले गियर में रखें। जब जब स्पीड बढ़ानी हो, गियर बदलते जाएं। इस technique का इस्तेमाल करने पर ब्रेक लगाने की ज़रूरत ज़्यादा नही पड़ती और बाइक आपके कंट्रोल से बाहर नही जाती।
कुछ लोग पहाड़ों में ढलान आने पर इंजन बंद कर के बाइक को न्यूट्रल गियर में चलाते हैं ताकि पेट्रोल बचा सकें। उन सभी को मेरी ये ही सलाह है की ऐसा तभी करें जब आप उस रास्ते से भली भांति परिचित हों। पहाड़ों पर हर मोड़ आपके लिये कुछ नया सरप्राइज ले कर आता है और यदि आपकी गाड़ी का इंजन बंद है और गियर न्यूट्रल में है तो सरप्राइज मिलने पर गाड़ी संभालना बहुत मुश्किल है।
अब बहुत ज्ञान हो गया, वापस चलते हैं चांशल पर।
तो हम कीचड़ और ढलान से संघर्ष कर रहे थे। बुरा हाल था। कीचड़ खत्म हुआ तो पथरीला रास्ता आ गया। चांशल हमे यूँ ही नहीँ जाने देने वाला था। पूरी दुश्मनी निकाल रहा था।
किसी तरह हम लरोत पहुँचे और एक ढाबा देख कर रुक गए। भूख तो सभी को लगी ही थी, चाय की तलब भी जोरदार थी क्योंकि सबके सर में दर्द हो रहा था। ढाबे वाले से पूछा कि क्या है खाने मे, उसके पास सिर्फ राजमा चावल ही बचे थे। तय हुआ कि 1 प्लेट राजमा चावल मंगवा कर चखा जाए पहले। अगर सही हुआ तो और लेंगे वरना 7 प्लेट खाना बेकार हो जाएगा। 1 प्लेट आयी और सबने 1-1 चम्मच चखा। क्या स्वाद था उस राजमा चावल का ।। पहाडों में न जाने क्यों हर चीज़ का स्वाद 10 गुना बढ़ जाता है। फिर वो चाहे चाय हो, मैग्गी हो या कोई भी खाने की चीज़ हो। और आपको पहाडों का असली स्वाद छोटे छोटे ढाबों पर ही मिलेगा क्योकि वहां लकड़ी पर खाना बनता है। होटल में तो सारा खाना गैस पर पका होने की वजह से एक जैसा ही लगता है ।
सभी इतने भूखे थे कि 2-2 प्लेट राजमा चावल खा गए। पेट पूजा के बाद प्रस्थान हुआ। अब रास्ता थोड़ा सही था। गड्ढे वाली ही सही, रोड तो थी, सो गाड़ी के कान उमेठे गए क्योकि दोपहर के 3 बजने वाले थे और हम अभी चिरगाँव भी नही पहुचे थे। आज रात को हमे संजोली पहुचना था जो कि करीब 120 कि मी दूर था।
3:30 तक हम होटल पहुचे, समान उठाया और शाम 4 बजे निकल पड़े। अब हमारी दौड़ समय के साथ थी। रोहड़ू पर करने तक रास्ता फिर खराब ही था। रोहड़ू पर करने के बाद हम शिमला जाने वाले रास्ते पर आ गए जो हमे हाटकोटी-कोटखाई-फागू से हो कर संजौली ले जाता। रास्ता खाली था, मोटरसाइकिल दौड़ाई गयी। दीपक जी सबसे आगे चल रहे थे क्योंकि उन्हें ही रास्ता पता था। मगर एक जगह आ कर रोड 2 हिस्सों में बंट रही थी सो वहीं ठेके पर खड़े कुछ लोगों से पूछा। हमें बताया गया कि दोनों रास्ते शिमला ही जाते हैं पर ऊपर जाने वाला रास्ता न सिर्फ 25 कि मी छोटा है बल्कि सुंदर भी है।
शॉर्टकट रास्ता सुन कर दीपक जी ने उसी ऊपर वाले रास्ते से जाने का फैसला किया। हालांकि सबने कहा कि नीचे वाले रास्ता भले ही लंबा लग रहा है परंतु रोड सही है मगर वो नहीं माने। हम भी पीछे पीछे चल पड़े फिर। हमें बताया गया था कि शॉर्टकट रास्ता शुरू के 2-3 कि मी खराब है मगर फिर सही है।
3 कि मी निकल गए, रास्ता अभी भी खराब था और हमारी स्पीड बहुत धीमी थी, 30 से ऊपर कोई नही जा पा रहा था। पूरा रास्ता सिर्फ सेब के बाग़ या इक्का दुक्का झोंपड़ी दिखी थीं जो किसानों ने रखवाली के लिए बनाई थी। 10 कि मी चलने के बाद समझ आया कि ये रास्ता कोई शॉर्टकट नहीं है, हमसे उस आदमी ने कोई पिछले जन्म का हिसाब चुकता किया है।
अब अंधेरा घिरने लगा थे और गाँव भी पीछे निकल चुके थे, आगे था तो बस जंगल और सड़क के नाम पर एक छोटी सी पगडंडी जिसके एक तरफ खाई थी और दूसरी तरफ घना जंगल। घुप्प अंधेरा था और हम सिर्फ अपनी बाइक की हेडलाइट की रोशनी में चल रहे थे। डर भी लग रहा था कि कहीं जंगल मे से कोई बाघ या भालू आ गया तो क्या करेंगे। ठंडे मौसम में भी पसीने छूट रहे थे।
यूँ तो सबके मन मे डर और गुस्सा था मगर बाकी लोग हताश न हो जाएं इसलिए कोई भी अपने असली भाव चेहरे पर आने नही दे रहा था। जंगल मे एक जगह रुकना पड़ा तो सभी हंसी मजाक करने लगे, इस बात का इतना अच्छा परिणाम रहा कि कोई झुंझुलाया नहीं, आपस मे कोई कड़वी बात या मतभेद नहीं हुआ।
जंगल खत्म हुआ, और हमें पक्की रोड मिली, मानो हमें पंख लग गए, बाइक ऐसी भगायी जैसे पीछे कोई भूत आ रहा हो। क्या पता आ भी रहा हो, आज तक इतने घने जंगल में रात में कभी बाइक नहीं चलाई थी।
रोड हमे नारकंडा ले आयी। बाजार देख कर सभी रुके, आराम करने के लिए भी और रात का खाना पैक करवाने के लिए भी। अभी रात के 10 बजे थे, नारकंडा से संजोली अभी भी दूर ही था। खाना खा के जाते तो फिर भूख लग आती, पैक करवा के ले जाते तो ठंडा हो जाता। अंत मे ये तय हुआ कि पैक नहीं करवा रहे हैं, आज पुलाव बना के खाएंगे। दीपक जी के घर में सब कुछ था, गैस, माइक्रोवेव, फ्रिज, सब कुछ, सो सब्जी, चावल, तेल और मसाले खरीदे और चल पड़े।
अंधेरा होने की वजह से और ट्रैफिक मिलने की वजह से 12:30 तक हम संजोली पहुंचे। जान में जान आयी कि चलो, पहुंच गए अब घर और बिस्तर दूर नहीं। मगर किस्मत को ये कहाँ मंज़ूर था, अभी मरते हुए में 4 लात पूरी नही हुई थीं। सो हुआ ये की दीपक जी अपने घर का रास्ता भूल गए।
अब सुनने में अजीब लगता है की कोई अपने ही घर का रास्ता भूल जाये मगर संजोली में दीपक जी का घर ज़्यादातर बन्द रहता था, कभी कभार ही वो उस घर में जाते थे। एक तो रात का समय और दूसरे उनकी कॉलोनी के गेट पर कुछ ट्रक खड़े थे सो रास्ते से आगे निकल गए हम। थोड़ी देर बाद दीपक जी को एहसास हुआ कि गलत आ गए हैं तब उन्होंने आस पास खड़े लोगों से पूछताछ की तो पता चला कि वाक़ई आगे आ गए हैं। फिर क्या था, चले वापिस, इस बार 20 की स्पीड से गाड़ियां चल रही थी क्योंकि गेट भी ढूंढना था। उस समय मन कर रहा था कि भगवान ने उल्लू की आंखे क्यो नहीं लगा दी हमारे जो अंधेरे में भी दिख जाता आसपास का।
बमुश्किल घर का रास्ता मिला तो चढ़ाई इतनी तीखी की दूसरा चांशल समझ लो। मरता क्या न करता, उतरना पड़ा बाइक से और 2 कि मी पैदल, खड़ी चढ़ाई पर पदयात्रा करते हुए घर पहुँचा। घर मे पहुच के जब देखा तो जग्गी जी नहीं दिखाई दिए। सबसे पूछा गया तो पता चला कि वो आखिरी बार ढलान पर बाइक चढ़ाते हुए देखे गए थे। ढूंढ मची तो जग्गी जी अपनी बाइक के बगल में उकडूँ बैठे हुए पाए गए और उन्होंने अपना सर दोनों हाथों में थाम रखा था। पूरे दिन के घटनाक्रम ने उनकी अच्छी खासी बैंड बजा दी थी।
जैसे तैसे कर जग्गी जी अंदर आये, हमने समान पटक, हाथ मुह धोये और जुट गए सब्जी छीलने में। अब पुलाव पकाने की पर्ची भी मेरे नाम ही फटी सो शरीर मे उठती दर्द की लहरों से लड़ कर किसी तरह रात के 1:30 तक पुलाव बनाया। अनजाने में पुलाव भी अच्छा बन गया। खाना खा के सभी 3 बजे तक सोने चले गए।
आज का दिन वाक़ई में इस यात्रा का सबसे मुश्किल दिन था। करीब 16 घंटे बाइक चलाई जिसमे से 10 घंटे बेहद खराब रास्ते पर थे।
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आज की यात्रा का सबसे गलत फैसला रात को चलना। हमेशा यह कोशिश करिए जहां भी रात को अंधेरा होने वाला है उसी से पहले अपना ठिकाना देख कर रुक जाना चाहिए।
पहाड़ों में अगर आप दिन के उजाले में नजर देखते हुए यात्रा करते तो शानदार यादगार रहती..
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